आकस्मिक सुख-दुःख

अनेक बार ऐसे अवसर आ उपस्थित होते हैं जो प्राकृतिक नियमों के बिल्कुल विपरीत दिखाई
देते हैं। एक मनुष्य उत्तम जीवन बिताता है, पर अकस्मात् उसके ऊपर ऐसी विपत्ति आ
जाती है मानो ईश्वर किसी घोर दुष्कर्म का दण्ड दे रहा हो। एक मनुष्य बुरे से बुरे
कर्म करता है, पर वह चैन की वंशी बजाता है, सब प्रकार के सुख-सौभाग्य उसे प्राप्त
होते हैं। एक निठल्ले को लॉटरी में, जुआ में या कहीं गढ़ा हुआ धन मिल जाता है, किंतु
दूसरा अत्यंत परिश्रमी और बुद्धिमान मनुष्य अभाव में ही ग्रसित रहता है। एक व्यक्ति
स्वल्प परिश्रम में ही बड़ी सफलता प्राप्त कर लेता है, दूसरा घोर प्रयत्न करने और
अत्यंत सही तरीका पकड़ने पर भी असफल रहता है। ऐसे अवसरों पर ‘प्रारब्ध’, ‘भाग्य’ आदि
शब्दों का प्रयोग होता है। इसी प्रकार महामारी, बीमारी, अकाल मृत्यु, अतिवृष्टि,
अनावृष्टि, बिजली गिरना, भूकंप, बाढ़ आदि दैवी प्रकोप भी भाग्य, प्रारब्ध कहे जाते
हैं। आकस्मिक दुर्घटनाएँ, मानसिक आपदा, वियोग आदि वे प्रसंग जो टल नहीं सकते, इसी
श्रेणी में आ जाते हैं।

यह ठीक है कि ऐसे प्रसंग कम आते हैं, प्रयत्न से उलटा फल होने को आकस्मित घटना घटित
हो जाने के अपवाद चाहे कितने ही कम क्यों न हों, पर होते जरूर हैं और वे कभी-कभी
ऐसे कठोर होते हैं कि उनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। ऐसे अवसरों पर हम में से
साधारण श्रेणी के ज्ञान रखने वाले बहुत ही भ्रमित हो जाते हैं और ऐसी-ऐसी धारणा बना
लेते हैं, जो जीवन के लिए बहुत ही घातक सिद्ध होती है। कुछ लोग तो ईश्वर पर अत्यंत
कुपित होते हैं। उसे दोषी ठहराते हैं और भरपूर गालियाँ देते हैं, कई तो नास्तिक हो
जाते हैं, कहते हैं कि हमने ईश्वर का इतना भजन-पूजन किया पर उसने हमारी कुछ भी
सहायता नहीं की, ऐसे ईश्वर को पूजना व्यर्थ है, कई महामानव लाभ की इच्छा से
साधु-संत, देवी-देवताओं की पूजा करते हैं। यदि संयोगवश इसी बीच में कुछ हानिकर
प्रसंग आ गए, तो उस पूजा के स्थान पर निंदा करने लगते हैं। ऐसा भी देखा गया है कि
ऐसे आकस्मिक प्रसंग आने के समय ही यदि घर में कोई नया प्राणी आया हो, कोई पशु खरीदा
हो, बालक उत्पन्न हुआ हो, नई बहू आई हो, तो उस घटना का दोष या श्रेय उस नवागंतुक
प्राणी पर थोप दिया जाता है। यह नया बालक बड़ा भाग्यवान् हुआ जो जन्मते ही इतना लाभ
हुआ, यह बहू बड़ी अभागी आई कि आते ही सत्यानाश कर दिया, इस श्रेयदान या दोषारोपण के
कारण कभी-कभी घर में ऐसे दुःखदायी क्लेश-कलह उठ खड़े होते हैं कि उनका स्मरण होते ही
रोमांच हो जाता है। हमारे परिचित एक सज्जन के घर में नई बहू आई, उन्हीं दिनों घर का
एक जवान लड़का मर गया। इस मृत्यु का दोष बेचारी नई बहू पर पड़ा, सारा घर यही तानाकसी
करता-‘यह बड़ी अभागी आई है, आते ही एक बलि ले ली।’ कुछ दिन तो इस अपमान को बेचारी
निर्दोष लड़की विष के घूँट की तरह पीती रही, पर जब हर वक्त का अपमान, घरवालों का
नित्यप्रति का दुर्व्यवहार सहन न कर सकी, तो मिट्टी का तेल छिड़क कर जल मरी। बेचारी
निरपराध विधवाओं को अभागी, कलमुँही, डायन की उपाधि मिलने का एक आम रिवाज है। इसका
कारण भाग्यवाद के सम्बन्ध में मन में जमी हुई अनर्थमूलक धारणा है।
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